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नज़्म
सफ़ीर-ए-लैला यही खंडर हैं जहाँ से आग़ाज़-ए-दास्ताँ है
ज़रा सा बैठो तो मैं सुनाऊँ
अली अकबर नातिक़
नज़्म
वो नग़्मे वो मनाज़िर वो बहारें याद हैं मुझ को
यही वो नक़्श हैं जो मिट नहीं सकते मिटाने से
ज़िया फ़तेहाबादी
नज़्म
मनाज़िर सब उसी इक रौशनी पर मुनहसिर हैं
जो दिल की मुंहमिक परतों को जब भी फाँद कर आती है