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नज़्म
पशेमानियाँ मेरे शाम-ओ-सहर का मुक़द्दर
पशेमानियों से मिरे रोज़-ओ-शब की फ़ज़ाएँ मुकद्दर
मख़मूर सईदी
नज़्म
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं तिरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से जबीं
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
वो सिब्तैन-ए-मोहम्मद, जिन को जाने क्यूँ बहुत अरफ़ा
तुम उन की दूर की निस्बत से भी यकसर मुकर जाना
जौन एलिया
नज़्म
इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए
सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अब चमकेगा बे-सब्र निगाहों का मुक़द्दर
इस बाम से निकलेगा तिरे हुस्न का ख़ुर्शीद