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नज़्म
मियान-ए-शाख़-साराँ सोहबत-ए-मुर्ग़-ए-चमन कब तक
तिरे बाज़ू में है परवाज़-ए-शाहीन-ए-क़हस्तानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
گئے وہ ايام ، اب زمانہ نہيں ہے صحرانورديوں کا
جہاں ميں مانند شمع سوزاں ميان محفل گداز ہو جا
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
निकली ही पड़ती हैं ख़ुद म्यान से तेग़ें उन की
ढूँढती अपना मुक़ाबिल हैं निगाहें उन की