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जुगनू

MORE BYफ़िराक़ गोरखपुरी

    रोचक तथ्य

    बीस बरस के उस नौजवान के जज़्बात जिस की माँ उसी दिन मर गई जिस दिन वो पैदा हुआ

    ये मस्त मस्त घटा, ये भरी भरी बरसात

    तमाम हद्द-ए-नज़र तक घुलावटों का समाँ

    फ़ज़ा-ए-शाम में डोरे से पड़ते जाते हैं

    जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है

    दहक उठा है तरावत की आँच से आकाश

    ज़े-फ़र्श ता-फ़लक अंगड़ाइयों का आलम है

    ये मद-भरी हुई पुरवाइयाँ सनकती हुई

    झिंझोड़ती है हरी डालियों को सर्द हवा

    ये शाख़-सार के झूलों में पेंग पड़ते हुए

    ये लाखों पत्तियों का नाचना ये रक़्स-ए-नबात

    ये बे-ख़ुदी-ए-मुसर्रत ये वालिहाना रक़्स

    ये ताल-सम ये छमा-छम कि कान बजते हैं

    हवा के दोश पे कुछ ऊदी ऊदी शक्लों की

    नशे में चूर सी परछाइयाँ थिरकती हुई

    उफ़ुक़ पे डूबते दिन की झपकती हैं आँखें

    ख़मोश सोज़-ए-दरूँ से सुलग रही है ये शाम!

    मिरे मकान के आगे है एक चौड़ा सहन वसीअ

    कभी वो हँसता नज़र आता है कभी वो उदास

    इसी के बीच में है एक पेड़ पीपल का

    सुना है मैं ने बुज़ुर्गों से ये कि उम्र उस की

    जो कुछ होगी तो होगी क़रीब छियानवे साल

    छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंग-ए-आज़ादी

    जिसे दबाने के ब'अद उस को ग़द्र कहने लगे

    ये अहल-ए-हिन्द भी होते हैं किस क़दर मासूम

    वो दार-ओ-गीर वो आज़ादी-ए-वतन की जंग

    वतन से थी कि ग़नीम-ए-वतन से ग़द्दारी

    बिफर गए थे हमारे वतन के पीर जवाँ

    दयार-ए-हिन्द में रन पड़ गया था चार तरफ़

    उसी ज़माने में कहते हैं मेरे दादा ने

    जब अर्ज़-ए-हिन्द सिंची ख़ून से ''सपूतों'' के

    मियान-ए-सहन लगाया था ला के इक पौदा

    जो आब-ओ-आतिश-ओ-ख़ाक-ओ-हवा से पलता हुआ

    ख़ुद अपने क़द से ब-जोश-ए-नुमू निकलता हुआ

    फ़ुसून-ए-रूह बनाती रगों में चलता हुआ

    निगाह-ए-शौक़ के साँचों में रोज़ ढलता हुआ

    सुना है रावियों से दीदनी थी उस की उठान

    हर इक के देखते ही देखते चढ़ा परवान

    वही है आज ये छितनार पेड़ पीपल का

    वो टहनियों के कमंडल लिए जटाधारी

    ज़माना देखे हुए है ये पेड़ बचपन से

    रही है इस के लिए दाख़ली कशिश मुझ में

    रहा हूँ देखता चुप-चाप देर तक उस को

    मैं खो गया हूँ कई बार इस नज़ारे में

    वो उस की गहरी जड़ें थीं कि ज़िंदगी की जड़ें?

    पस-ए-सुकून-ए-शजर कोई दिल धड़कता था

    मैं देखता था उसे हसती-ए-बशर की तरह

    कभी उदास कभी शादमाँ कभी गम्भीर

    फ़ज़ा का सुरमई रंग और हो चला गहरा

    घुला घुला सा फ़लक है धुआँ धुआँ सी है शाम

    है झुटपुटा कि कोई अज़दहा है माइल-ए-ख़्वाब

    सुकूत-ए-शाम में दरमांदगी का आलम है

    रुकी रुकी सी किसी सोच में है मौज-ए-सबा

    रुकी रुकी सी सफ़ें मल्गजी घटाओं की

    उतार पर है सर-ए-सहन रक़्स पीपल का

    वो कुछ नहीं है अब इक जुम्बिश-ए-ख़फ़ी के सिवा

    ख़ुद अपनी कैफ़ियत-ए-नील-गूँ में हर लहज़ा

    ये शाम डूबती जाती है छुपती जाती है

    हिजाब-ए-वक़्त सिरे से है बेहिस-ओ-हरकत

    रुकी रुकी दिल-ए-फ़ितरत की धड़कनें यक-लख़्त

    ये रंग-ए-शाम कि गर्दिश ही आसमाँ में नहीं

    बस एक वक़्फ़ा-ए-तारीक, लम्हा-ए-शहला

    समा में जुम्बिश-ए-मुबहम सी कुछ हुई फ़ौरन

    तुली घटा के तले भीगे भीगे पत्तों से

    हरी हरी कई चिंगारियाँ सी फूट पड़ीं

    कि जैसे खुलती झपकती हों बे-शुमार आँखें

    अजब ये आँख-मिचोली थी नूर-ओ-ज़ुल्मत की

    सुहानी नर्म लवें देते अन-गिनत जुगनू

    घनी सियाह ख़ुनुक पत्तियों के झुरमुट से

    मिसाल-ए-चादर-ए-शब-ताब जगमगाने लगे

    कि थरथराते हुए आँसुओं से साग़र-ए-शाम

    छलक छलक पड़े जैसे बग़ैर सान गुमान

    बुतून-ए-शाम में इन ज़िंदा क़ुमक़ुमों की दमक

    किसी की सोई हुई याद को जगाती थी

    वो बे-पनाह घटा वो भरी भरी बरसात

    वो सीन देख के आँखें मिरी भर आती थीं

    मिरी हयात ने देखी हैं बीस बरसातें

    मिरे जनम ही के दिन मर गई थी माँ मेरी

    वो माँ कि शक्ल भी जिस माँ की मैं देख सका

    जो आँख भर के मुझे देख भी सकी वो माँ

    मैं वो पिसर हूँ जो समझा नहीं कि माँ क्या है

    मुझे खिलाइयों और दाइयों ने पाला था

    वो मुझ से कहती थीं जब घिर के आती थी बरसात

    जब आसमान में हर सू घटाएँ छाती थीं

    ब-वक़्त-ए-शाम जब उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू

    दिए दिखाते हैं ये भूली-भटकी रूहों को

    मज़ा भी आता था मुझ को कुछ उन की बातों में

    मैं उन की बातों में रह रह के खो भी जाता था

    पर इस के साथ ही दिल में कसक सी होती थी

    कभी कभी ये कसक हूक बन के उठती थी

    यतीम दिल को मिरे ये ख़याल होता था!

    ये शाम मुझ को बना देती काश इक जुगनू

    तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह

    कहाँ कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी

    कहाँ कहाँ मिरी ख़ातिर भटक रही होगी

    ये सोच कर मिरी हालत अजीब हो जाती

    पलक की ओट में जुगनू चमकने लगते थे

    कभी कभी तो मिरी हिचकियाँ सी बंध जातीं

    कि माँ के पास किसी तरह मैं पहुँच जाऊँ

    और उस को राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ

    दिखाऊँ अपने खिलौने दिखाऊँ अपनी किताब

    कहूँ कि पढ़ के सुना तो मिरी किताब मुझे

    फिर इस के ब'अद दिखाऊँ उसे मैं वो कापी

    कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनी थीं कुछ जिस में

    ये हर्फ़ थे जिन्हें मैं ने लिक्खा था पहले-पहल

    और उस को राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ

    दिखाऊँ फिर उसे आँगन में वो गुलाब की बेल

    सुना है जिस को उसी ने कभी लगाया था

    ये जब कि बात है जब मेरी उम्र ही क्या थी

    नज़र से गुज़री थीं कल चार पाँच बरसातें

    गुज़र रहे थे मह-ओ-साल और मौसम पर

    हमारे शहर में आती थी घिर के जब बरसात

    जब आसमान में उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू

    हवा की मौज-ए-रवाँ पर दिए जलाए हुए

    फ़ज़ा में रात गए जब दरख़्त पीपल का!

    हज़ारों जुगनुओं से कोह-ए-तूर बनता था

    हज़ारों वादी-ए-ऐमन थीं जिस की शाख़ों में

    ये देख कर मिरे दिल में ये हूक उठती थी

    कि मैं भी होता इन्हीं जुगनुओं में इक जुगनू

    तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह

    वो माँ मैं जिस की मोहब्बत के फूल चुन सका

    वो माँ मैं जिस से मोहब्बत के बोल सुन सका

    वो माँ कि भेंच के जिस को कभी मैं सो सका

    मैं जिस के आँचलों में मुँह छुपा के रो सका

    वो माँ कि घुटनों से जिस के कभी लिपट सका

    वो माँ कि सीने से जिस के कभी चिमट सका

    हुमक के गोद में जिस की कभी मैं चढ़ सका

    मैं ज़ेर-ए-साया-ए-उम्मीद जिस के बढ़ सका

    वो माँ मैं जिस से शरारत की दाद पा सका

    मैं जिस के हाथों मोहब्बत की मार खा सका

    सँवारा जिस ने मेरे झंडूले बालों को

    बसा सकी जो होंटों से सूने गालों को

    जो मेरी आँखों में आँखें कभी डाल सकी

    अपने हाथों से मुझ को कभी उछाल सकी

    वो माँ जो कोई कहानी मुझे सुना सकी

    मुझे सुलाने को जो लोरियाँ भी गा सकी

    वो माँ जो दूध भी अपना मुझे पिला सकी

    वो माँ जो हाथ से अपने मुझे खिला सकी

    वो माँ गले से मुझे जो कभी लगा सकी

    वो माँ जो देखते ही मुझ को मुस्कुरा सकी

    कभी जो मुझ से मिठाई छुपा के रख सकी

    कभी जो मुझ से दही भी बचा के रख सकी

    मैं जिस के हाथ में कुछ देख कर डहक सका

    पटक पटक के कभी पाँव मैं ठुनक सका

    कभी खींचा शरारत से जिस का आँचल भी

    रचा सकी मिरी आँखों में जो काजल भी

    वो माँ जो मेरे लिए तितलियाँ पकड़ सकी

    जो भागते हुए बाज़ू मिरे जकड़ सकी

    बढ़ाया प्यार कभी कर के प्यार में कमी

    जो मुँह बना के किसी दिन मुझ से रूठ सकी

    जो ये भी कह सकी जा बोलूँगी तुझ से

    जो एक बार ख़फ़ा भी हो सकी मुझ से

    वो जिस को जूठा लगा मुँह कभी दिखा सका

    कसाफ़तों पे मिरी जिस को प्यार सका

    जो मिट्टी खाने पे मुझ को कभी पीट सकी

    हाथ थाम के मुझ को कभी घसीट सकी

    वो माँ जो गुफ़्तुगू की रौ में सुन के मेरी बड़

    कभी जो प्यार से मुझ को कह सकी घामड़

    शरारतों से मिरी जो कभी उलझ सकी

    हिमाक़तों का मिरी फ़ल्सफ़ा समझ सकी

    वो माँ कभी जिसे चौंकाने को मैं लुक सका

    मैं राह छेंकने को जिस के आगे रुक सका

    जो अपने हाथ से बहरूप मेरे भर सकी

    जो अपनी आँखों को आईना मेरा कर सकी

    गले में डाली बाहोँ की फूल-माला भी

    दिल में लौह-ए-जबीं से किया उजाला भी

    वो माँ कभी जो मुझे बद्धियाँ पहना सकी

    कभी मुझे नए कपड़ों से जो सजा सकी

    वो माँ जिस से लड़कपन के झूट बोल सका

    जिस के दिल के दराँ कुंजियों से खोल सका

    वो माँ मैं पैसे भी जिस के कभी चुरा सका

    सज़ा से बचने को झूटी क़सम भी खा सका

    वो माँ कि आयत-ए-रहमत है जिस की चीन-ए-जबीं

    वो माँ कि हाँ से भी होती है बढ़ के जिस की नहीं

    दम-ए-इताब जो बनती फ़रिश्ता रहमत का

    जो राग छेड़ती झुँझला के भी मोहब्बत का

    वो माँ कि घुड़कियाँ भी जिस के गीत बन जाएँ

    वो माँ कि झिड़कियां भी जिस की फूल बरसाएँ

    वो माँ हम उस से जो दम भर को दुश्मनी कर लें

    तो ये कह सके अब आओ दोस्ती कर लें

    कभी जो सुन सकी मेरी तोतली बातें

    जो दे सकी कभी थप्पड़ों की सौग़ातें

    वो माँ बहुत से खिलौने जो मुझ को दे सकी

    ख़िराज-ए-सर-ख़ुशी-ए-सरमदी जो ले सकी

    वो माँ मैं जिस से लड़ाई कभी ठान सका

    वो माँ मैं जिस पे कभी मुट्ठियाँ तान सका

    वो मेरी माँ मैं कभी जिस की पीठ पर चढ़ा

    वो मेरी माँ कभी कुछ जिस के कान में रखा

    वो माँ कभी जो मुझे करधनी पिन्हा सकी

    जो ताल हाथ से दे कर मुझे नचा सकी

    जो मेरे हाथ से इक दिन दवा भी पी सकी

    कि मुझ को ज़िंदगी देने में जान ही दे दी

    वो माँ देख सका ज़िंदगी में जिस की चाह

    उसी की भटकती हुई रूह को दिखाता राह

    ये सोच सोच के आँखें मिरी भर आती थीं

    तो जा के सूने बिछौने पे लेट रहता था

    किसी से घर में राज़ अपने दिल के कहता था

    यतीम थी मिरी दुनिया, यतीम मेरी हयात

    यतीम शाम-ओ-सहर थी, यतीम थे शब-ओ-रोज़

    यतीम मेरी पढ़ाई थी मेरे खेल यतीम

    यतीम मेरी मसर्रत थी मेरा ग़म भी यतीम

    यतीम आँसुओं से तकिया भीग जाता था

    किसी से घर में कहता था अपने दिल का भेद

    हर इक से दूर अकेला उदास रहता था

    किसी शमाइल-ए-नादीदा को मैं तकता था

    मैं एक वहशत-ए-बे-नाम से हड़कता था

    गुज़र रहे थे मह-ओ-साल और मौसम पर

    इसी तरह कई बरसातें आईं और गईं

    मैं रफ़्ता रफ़्ता पहुँचने लगा ब-सिन्न-ए-शुऊर

    तो जुगनुओं की हक़ीक़त समझ में आने लगी

    अब उन खिलाइयों और दाइयों की बातों पर

    मिरा यक़ीं रहा मुझ पे हो गया ज़ाहिर

    कि भटकी रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़

    वो मन-घड़त सी कहानी थी इक फ़साना था

    वो बे-पढ़ी लिखी कुछ औरतों की थी बकवास

    भटकती रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़

    ये खुल गया मिरे बहलाने को थीं ये बातें

    मिरा यक़ीं रहा इन फ़ुज़ूल क़िस्सों पर

    हमारे शहर में आती हैं अब भी बरसातें

    हमारे शहर पर अब भी घटाएँ छाती हैं

    हनूज़ भीगी हुई सुरमई फ़ज़ाओं में

    ख़ुतूत-ए-नूर बनाती हैं जुगनुओं की सफ़ें

    फ़ज़ा-ए-तीरा में उड़ती हुई ये क़िंदीलें

    मगर मैं जान चुका हूँ इसे बड़ा हो कर

    किसी की रूह को जुगनू नहीं दिखाते राह

    कहा गया था जो बचपन में मुझ से झूट था सब

    मगर कभी कभी हसरत से दिल में कहता हूँ

    ये जानते हुए जुगनू नहीं दिखाते चराग़

    किसी की भटकती हुई रूह को मगर फिर भी

    वो झूट ही सही कितना हसीन झूट था वो

    जो मुझ से छीन लिया उम्र के तक़ाज़े ने

    मैं क्या बताऊँ वो कितनी हसीन दुनिया थी

    जो बढ़ती उम्र के हाथों ने छीन ली मुझ से

    समझ सके कोई काश अहद-ए-तिफ़्ली को

    जहान देखना मिट्टी के एक रेज़े को

    नुमूद-ए-लाला-ए-ख़ुद-रौ में देखना जन्नत

    करे नज़ारा-ए-कौनैन इक घरौंदे में

    उठा के रख ले ख़ुदाई को जो हथेली पर

    करे दवाम को जो क़ैद एक लम्हे में

    सुना? वो क़ादिर-ए-मुतलक़ है एक नन्ही सी जान

    ख़ुदा भी सज्दे में झुक जाए सामने उस के

    ये अक़्ल-ओ-फ़हम बड़ी चीज़ हैं मुझे तस्लीम

    मगर लगा नहीं सकते हम इस का अंदाज़ा

    कि आदमी को ये पड़ती हैं किस क़दर महँगी

    इक एक कर के वो तिफ़्ली के हर ख़याल की मौत

    बुलूग़-ए-सिन में वो सदमे नए ख़यालों के

    नए ख़याल का धचका नए ख़याल की टीस

    नए तसव्वुरों का कर्ब, अल-अमाँ कि हयात

    तमाम ज़ख़्म निहाँ है तमाम नश्तर है

    ये चोट खा के सँभलना मुहाल होता है

    सुकूत रात का जिस वक़्त छेड़ता है सितार

    कभी कभी तिरी पायल की आती है झंकार

    तो मेरी आँखों से मोती बरसने लगते हैं

    अँधेरी रात के परछावें डसने लगते हैं

    मैं जुगनू बन के तो तुझ तक पहुँच नहीं सकता

    जो तुझ से हो सके माँ तू वो तरीक़ा बता

    तू जिस को पा ले वो काग़ज़ उछाल दूँ कैसे

    ये नज़्म मैं तिरे क़दमों में डाल दूँ कैसे

    नवा-ए-दर्द से कुछ जी तो हो गया हल्का

    मगर जब आती है बरसात क्या करूँ इस को

    जब आसमान में उड़ते हैं हर तरफ़ जुगनू

    शराब-ए-नूर लिए सब्ज़ आबगीनों में

    कँवल जलाते हुए ज़ुल्मतों के सीनों में

    जब उन की ताबिश-ए-बे-साख़्ता से पीपल का

    दरख़्त सर्व-ए-चराग़ाँ को मात करता है

    जाने किस लिए आँखें मिरी भर आती हैं

    स्रोत:

    Gul-e-Naghma (Pg. 119)

    • लेखक: Firaq Gorakhpuri
      • संस्करण: 2006
      • प्रकाशक: Kitabi Duniya, Delhi-6
      • प्रकाशन वर्ष: 2006

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