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नज़्म
मिरे बग़ैर भी देखा है ज़ुल्मतों का नुज़ूल
मिरे न होने से उम्मीद का ज़ियाँ क्यूँ हो
साहिर लुधियानवी
नज़्म
लर्ज़ा-बर-अंदाम है सेहन-ए-ज़मीं का अर्ज़-ओ-तूल
हो रहा है ख़ाक पर नापाक रूहों का नुज़ूल
जोश मलीहाबादी
नज़्म
अर्श से फ़र्श पे करता है नुज़ूल
और उसी लम्हा वो बद-बख़्त वो मर्ताज़ी-ए-तस्बीह-ओ-रुकु-ओ-सज्दा
वहीद अख़्तर
नज़्म
क़दम चालीसवीं मंज़िल में उस यूसुफ़ ने जब रक्खा
तो पहुँचा कारवान-ए-वहइ आवाज़-ए-जरस हो कर