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नज़्म
कभी ऐ 'नूर' बुत-ख़ाने को का'बे में निहाँ देखा
कभी का'बे में पोशीदा नज़र बुत-ख़ाना आता है
नूर लुधियानवी
नज़्म
सबक़ बस खेलने खाने का जिस को याद होता है
बड़ा हो कर वो लड़का एक दिन उस्ताद होता है
मुश्ताक़ अहमद नूरी
नज़्म
दिल ही में दर्द-ए-दिल रहे लब पर फ़ुग़ाँ न हो
राज़-ए-निहाँ का और कोई राज़-दाँ न हो
नूर लुधियानवी
नज़्म
उख़ुव्वत के परस्तारों की इक रंगीन दुनिया थी
हरीम-ए-नूरू-ओ-नग़्मा बज़्म-ए-नाहीद-ओ-सुरय्या थी
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
जहाँ में है ज़िया मिरी मैं हुस्न-ए-जल्वा-कार हूँ
मैं रौनक़ इस चमन की हूँ मैं फ़स्ल-ए-नौ-बहार हूँ