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नज़्म
बिलाल अहमद
नज़्म
'अक़्ल-ए-बे-माया इमामत की सज़ा-वार नहीं
राहबर हो ज़न-ओ-तख़मीं तो ज़ुबूँ कार-ए-हयात
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़दम चालीसवीं मंज़िल में उस यूसुफ़ ने जब रक्खा
तो पहुँचा कारवान-ए-वहइ आवाज़-ए-जरस हो कर
नज़्म तबातबाई
नज़्म
पीर वो जो रेस के घोड़ों पे रखते हैं नज़र
वही नाज़िल होती है सट्टे की जिन के क़ल्ब पर
इज़हार मलीहाबादी
नज़्म
सरोश ने बताया था कि चश्मा-ए-वही पे तुम ने बंद बाँध रक्खे थे
भला से ये भी कोई बात है