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नज़्म
सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
आलम-ए-सोज़-ओ-साज़ में वस्ल से बढ़ के है फ़िराक़
वस्ल में मर्ग-ए-आरज़ू! हिज्र में ल़ज़्जत-ए-तलब!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लिखा गया है बहुत लुतफ़-ए-वस्ल ओ दर्द-ए-फ़िराक़
मगर ये कैफ़ियत अपनी रक़म नहीं है कहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
विसाल-वा'दों की चंद चिंगारियों को साँसों की आँच दे कर
शरीर शो'लों की सर-कशी के तमाम तेवर