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नज़्म
धूप पड़ी, तो खुल गई आँखें, खुल गया सारा भेद
ग़श खाया, तो दौड़े आए मुंशी, पंडित, वेद
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
वेद उन के दिल-ए-हक़-केश की तस्वीरें हैं
जल्वा-ए-क़ुदरत-ए-माबूद की तफ़्सीरें हैं
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
थे पुरान-ओ-वेद-ओ-गीता के मसाइल जिस क़दर
सिल्क-ए-रामायण में रखा तू ने सब को बाँध कर
जगत मोहन लाल रवाँ
नज़्म
बपा है सख़्त तूफ़ाँ रूनुमा हैं सख़्त हंगामे
कहीं है वेद को ख़तरा कहीं क़ुरआन को ख़तरा
अहमक़ फफूँदवी
नज़्म
फ़लक पे वज्द में लाती है जो फ़रिश्तों को
वो शाएरी भी बुलूग़-ए-मिज़ाज-ए-तिफ़्ली है
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
वो मेरा शेर जब मेरी ही लय में गुनगुनाती थी
मनाज़िर झूमते थे बाम-ओ-दर को वज्द आता था