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रिश्वत

MORE BYजोश मलीहाबादी

    लोग हम से रोज़ कहते हैं ये आदत छोड़िए

    ये तिजारत है ख़िलाफ़-ए-आदमियत छोड़िए

    इस से बद-तर लत नहीं है कोई ये लत छोड़िए

    रोज़ अख़बारों में छपता है कि रिश्वत छोड़िए

    भूल कर भी जो कोई लेता है रिश्वत चोर है

    आज क़ौमी पागलों में रात दिन ये शोर है

    किस को समझाएँ उसे खोदें तो फिर पाएँगे क्या

    हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खाएँगे क्या

    क़ैद भी कर दें तो हम को राह पर लाएँगे क्या

    ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जाएँगे क्या

    मुल्क भर को क़ैद कर दे किस के बस की बात है

    ख़ैर से सब हैं कोई दो-चार दस की बात है

    ये हवस ये चोर बाज़ारी ये महँगाई ये भाव

    राई की क़ीमत हो जब पर्बत तो क्यूँ आए ताव

    अपनी तनख़्वाहों के नाले में है पानी आध-पाव

    और लाखों टन की भारी अपने जीवन की है नाव

    जब तलक रिश्वत लें हम दाल गल सकती नहीं

    नाव तनख़्वाहों के पानी में तो चल सकती नहीं

    रिश्वतों की ज़िंदगी है चोर-बाज़ारी के साथ

    चल रही है बे-ज़री अहकाम-ए-ज़रदारी के साथ

    फुर्तियाँ चूहों की हैं बिल्ली की तर्रारी के साथ

    आप रोकें ख़्वाह कितनी ही सितमगारी के साथ

    हम नहीं हिलने के सुन लीजे किसी भौंचाल से

    काम ये चलता रहेगा आप के इक़बाल से

    ये है मिल वाला वो बनिया है ये साहूकार है

    ये है दूकाँ-दार वो है वेद ये अत्तार है

    वो अगर ठग है तो ये डाकू है वो बट-मार है

    आज हर गर्दन में काली जीत का इक हार है

    हैफ़ मुल्क-ओ-क़ौम की ख़िदमत-गुज़ारी के लिए

    रह गए हैं इक हमीं ईमान-दारी के लिए

    भूक के क़ानून में ईमान-दारी जुर्म है

    और बे-ईमानियों पर शर्मसारी जुर्म है

    डाकुओं के दौर में परहेज़-गारी जुर्म है

    जब हुकूमत ख़ाम हो तो पुख़्ता-कारी जुर्म है

    लोग अटकाते हैं क्यूँ रोड़े हमारे काम में

    जिस को देखो ख़ैर से नंगा है वो हम्माम में

    तोंद वालों की तो हो आईना-दारी वाह वा

    और हम भूखों के सर पर चाँद-मारी वाह वा

    उन की ख़ातिर सुब्ह होते ही नहारी वाह वा

    और हम चाटा करें ईमान-दारी वाह वा

    सेठ जी तो ख़ूब मोटर में हवा खाते फिरें

    और हम सब जूतियाँ गलियों में चटख़ाते फिरें

    ख़ूब हक़ के आस्ताँ पर और झुके अपनी जबीं

    जाइए रहने भी दीजे नासेह-ए-गर्दूँ-नशीं

    तौबा तौबा हम भड़ी में के और देखें ज़मीं

    आँख के अंधे नहीं हैं गाँठ के पूरे नहीं

    हम फटक सकते नहीं परहेज़-गारी के क़रीब

    अक़्ल-मंद आते नहीं ईमान-दारी के क़रीब

    इस गिरानी में भला क्या ग़ुंचा-ए-ईमाँ खिले

    जौ के दाने सख़्त हैं ताँबे के सिक्के पिल-पिले

    जाएँ कपड़े के लिए तो दाम सुन कर दिल हिले

    जब गरेबाँ ता-ब-दामन आए तो कपड़ा मिले

    जान भी दे दे तो सस्ते दाम मिल सकता नहीं

    आदमियत का कफ़न है दोस्तों कपड़ा नहीं

    सिर्फ़ इक पतलून सिलवाना क़यामत हो गया

    वो सिलाई ली मियाँ दर्ज़ी ने नंगा कर दिया

    आप को मालूम भी है चल रही है क्या हवा

    सिर्फ़ इक टाई की क़ीमत घोंट देती है गला

    हल्की टोपी सर पे रखते हैं तो चकराता है सर

    और जूते की तरफ़ बढ़िए तो झुक जाता है सर

    थी बुज़ुर्गों की जो बनियाइन वो बनिया ले गया

    घर में जो गाढ़ी कमाई थी वो गाढ़ा ले गया

    जिस्म की एक एक बोटी गोश्त वाला ले गया

    तन में बाक़ी थी जो चर्बी घी का प्याला ले गया

    आई तब रिश्वत की चिड़िया पँख अपने खोल कर

    वर्ना मर जाते मियाँ कुत्ते की बोली बोल कर

    पत्थरों को तोड़ते हैं आदमी के उस्तुख़्वाँ

    संग-बारी हो तो बन जाती है हिम्मत साएबाँ

    पेट में लेती है लेकिन भूक जब अंगड़ाइयाँ

    और तो और अपने बच्चे को चबा जाती है माँ

    क्या बताएँ बाज़ियाँ हैं किस क़दर हारे हुए

    रिश्वतें फिर क्यूँ लें हम भूक के मारे हुए

    आप हैं फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा-ए-पाक से कुर्सी-नशीं

    इंतिज़ाम-ए-सल्तनत है आप के ज़ेर-ए-नगीं

    आसमाँ है आप का ख़ादिम तो लौंडी है ज़मीं

    आप ख़ुद रिश्वत के ज़िम्मेदार हैं फ़िदवी नहीं

    बख़्शते हैं आप दरिया कश्तियाँ खेते हैं हम

    आप देते हैं मवाक़े' रिश्वतें लेते हैं हम

    ठीक तो करते नहीं बुनियाद-ए-ना-हमवार को

    दे रहे हैं गालियाँ गिरती हुई दीवार को

    सच बताऊँ ज़ेब ये देता नहीं सरकार को

    पालिए बीमारियों को मारिए बीमार को

    इल्लत-ए-रिश्वत को इस दुनिया से रुख़्सत कीजिए

    वर्ना रिश्वत की धड़ल्ले से इजाज़त दीजिए

    बद बहुत बद-शक्ल हैं लेकिन बदी है नाज़नीं

    जड़ को बोसे दे रहे हैं पेड़ से चीं-बर-जबीं

    आप गो पानी उलचते हैं ब-तर्ज़-ए-दिल-नशीं

    नाव का सूराख़ लेकिन बंद फ़रमाते नहीं

    कोढ़ियों पर आस्तीं कब से चढ़ाए हैं हुज़ूर

    कोढ़ को लेकिन कलेजे से लगाए हैं हुज़ूर

    दस्त-कारी के उफ़ुक़ पर अब्र बन कर छाइए

    जहल के ठंडे लहू को इल्म से गर्माइए

    कार-ख़ाने कीजिए क़ाएम मशीनें लाइए

    उन ज़मीनों को जो महव-ए-ख़्वाब हैं चौंकाइए

    ख़्वाह कुछ भी हो मुंढे ये बैल चढ़ सकती नहीं

    मुल्क में जब तक कि पैदा-वार बढ़ सकती नहीं

    दिल में जितना आए लूटें क़ौम को शाह-ओ-वज़ीर

    खींच ले ख़ंजर कोई जोड़े कोई चिल्ले में तीर

    बे-धड़क पी कर ग़रीबों का लहू अकड़ें अमीर

    देवता बन कर रहें तो ये ग़ुलामान-ए-हक़ीर

    दोस्तों की गालियाँ हर आन सहने दीजिए

    ख़ाना-ज़ादों को यूँही शैतान रहने दीजिए

    दाम इक छोटे से कूज़े के हैं सौ जाम-ए-बिलूर

    मोल लेने जाएँ इक क़तरा तो दें नहर-ओ-क़ुसूर

    इक दिया जो बेचता है माँगता है शम-ए-तूर

    इक ज़रा से संग-रेज़े की है क़ीमत कोह-ए-नूर

    जब ये आलम है तो हम रिश्वत से क्या तौबा करें

    तौबा रिश्वत कैसी हम चंदा लें तो क्या करें

    ज़ुल्फ़ उस को-ऑपरेटिव सिलसिले की है दराज़

    छेड़ते हैं हम कभी तो वो कभी रिश्वत का साज़

    गाह हम बनते हैं क़ुमरी गाह वो बनते हैं बाज़

    आप को मालूम क्या आपस का ये राज़-ओ-नियाज़

    नाव हम अपनी खिवाते भी हैं और खेते भी हैं

    रिश्वतों के लेने वाले रिश्वतें देते भी हैं

    बादशाही तख़्त पर है आज हर शय जल्वा-गर

    फिर रहे हैं ठोकरें खाते ज़र-ओ-ला'ल-ओ-गुहर

    ख़ास चीज़ें क़ीमतें उन की तो हैं अफ़्लाक पर

    आब-ख़ोरा मुँह फुलाता है अठन्नी देख कर

    चौदा आने सेर की आवाज़ सुन कर आज-कल

    लाल हो जाता है ग़ुस्से से टमाटर आज-कल

    नस्तरन में नाज़ बाक़ी है गुल में रंग-ओ-बू

    अब तो है सेहन-ए-चमन में ख़ार-ओ-ख़स की आबरू

    ख़ुर्दनी चीज़ों के चेहरों से टपकता है लहू

    रूपये का रंग फ़क़ है अशरफ़ी है ज़र्द-रू

    हाल के सिक्के को माज़ी का जो सिक्का देख ले

    सौ रूपे के नोट के मुँह पर दो अन्नी थूक दे

    वक़्त से पहले ही आई है क़यामत देखिए

    मुँह को ढाँपे रो रही है आदमियत देखिए

    दूर जा कर किस लिए तस्वीर-ए-इबरत देखिए

    अपने क़िबला 'जोश' साहब ही की हालत देखिए

    इतनी गम्भीरी पे भी मर-मर के जीते हैं जनाब

    सौ जतन करते हैं तो इक घूँट पीते हैं जनाब

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