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नज़्म
'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है!
दीवार पे टांगा था फ़रमान रिफ़ाक़त का
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ की तरह देहली की सड़कें हैं दराज़
और तांगा हाँकने वालों पे ज़ाहिर है ये राज़
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
चाँद भी एक फफूँदी लगी रोटी की तरह सर पे टंगा रहता है
कैसे काटे कोई बीमारी में बेकारी के दिन?
गुलज़ार
नज़्म
जो बात की तो उन्हें तेज़-ओ-तुर्श ज़हर मिला
जो चुप हुए तो उन्हें सूलियों पे टाँग दिया
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
बकरे के पीछे पीछे हैं मजनूँ का भर के स्वाँग
गर हो सके ख़रीदिए बकरे की एक टाँग