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नज़्म
ये पर्बत है ख़ामोश साकिन
कभी कोई चश्मा उबलते हुए पूछता है कि उस की चटानों के उस पार क्या है
मीराजी
नज़्म
कितना अर्सा लगा ना-उमीदी के पर्बत से पत्थर हटाते हुए
एक बिफरी हुई लहर को राम करते हुए
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
नीले पर्बत ऊदी धरती, चारों कूट में तू ही तू
तुझ से अपने जी की ख़ल्वत तुझ से मन का मेला है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ये हवस ये चोर बाज़ारी ये महँगाई ये भाव
राई की क़ीमत हो जब पर्बत तो क्यूँ न आए ताव
जोश मलीहाबादी
नज़्म
एक अनार का पेड़ बाग़ में और घटा मतवारी थी
आस-पास काले पर्बत की चुप की दहशत तारी थी