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नज़्म
लो वो चाह-ए-शब से निकला पिछले-पहर पीला महताब
ज़ेहन ने खोली रुकते रुकते माज़ी की पारीना किताब
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
इक साहिब जो सोच रहे हैं पिछले एक पहर से
यूँ लगते हैं जैसे बच्चा रूठ आया हो घर से