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नज़्म
चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कुँवारी अबलाएँ माँ बाप की चौखट छोड़ गईं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ये हर इक गाम पे उन ख़्वाबों की मक़्तल-गाहें
जिन के परतव से चराग़ाँ हैं हज़ारों के दिमाग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जलाना है मुझे हर शम-ए-दिल को सोज़-ए-पिन्हाँ से
तिरी तारीक रातों में चराग़ाँ कर के छोड़ूँगा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लवों से जिन के चराग़ाँ हुई थी बज़्म-ए-हयात
जिन्हों ने हिन्द की तहज़ीब को ज़माना हुआ
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
फिर दिल को पास-ए-ज़ब्त की तल्क़ीन कर चुकें
और इम्तिहान-ए-ज़ब्त से फिर जी चुराईं हम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
पेश करती बीच नद्दी में चराग़ाँ का समाँ
साहिलों पर रेत के ज़र्रों को चमकाती हुई
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मेहराब है रुख़्सार के परतव से ज़र-अफ़्शाँ
ज़ुल्फ़ों में शब-ए-तार है आँखों में चराग़ाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जब शोला-ए-मीना सर्द हो ख़ुद जामों को फ़रोज़ाँ कौन करे
जब सूरज ही गुल हो जाए तारों में चराग़ाँ कौन करे