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नज़्म
सर्द शाख़ों में हवा चीख़ रही है ऐसे
रूह-ए-तक़्दीस-ओ-वफ़ा मर्सियाँ-ख़्वाँ हो जैसे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तारिक़ क़मर
नज़्म
मुहीब फाटकों के डोलते किवाड़ चीख़ उठे
उबल पड़े उलझते बाज़ुओं चटख़ती पिस्लियों के पुर-हिरास क़ाफ़िले
मजीद अमजद
नज़्म
कलेजा फुंक रहा है और ज़बाँ कहने से आरी है
बताऊँ क्या तुम्हें क्या चीज़ ये सरमाया-दारी है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
और जंगल से गुज़रते हुए मासूम मुसाफ़िर
अपने चेहरों को खरोंचों से बचाने के लिए चीख़ पड़े थे
गुलज़ार
नज़्म
उत्तर दक्खिन पूरब पच्छिम हर सम्त से इक चीख़ आती है
नौ-ए-इंसाँ काँधों पे लिए गाँधी की अर्थी जाती है