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नज़्म
अली अकबर नातिक़
नज़्म
और रह जाते हैं हम हक्का-बक्का
जिस मफ़्हूम पर सर धुनते आए थे कल तक कितना सतही कितना अधूरा था वो
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
हाँ बे-कल बे-कल रहता है हो पीत में जिस ने जी हारा
पर शाम से ले कर सुब्ह तलक यूँ कौन फिरेगा आवारा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
याँ तक जो हो चुका है सो है वो भी आदमी
कुल आदमी का हुस्न ओ क़ुबह में है याँ ज़ुहूर