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नज़्म
आलम ये था क़रीब कि आँखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
ये जा कर कोई बज़्म-ए-ख़ूबाँ में कह दो
कि अब दर-ख़ोर-ए-बज़्म-ए-ख़ूबाँ नहीं मैं