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नज़्म
और मैं तुझे उन ख़ुद-रौ जंगली फूलों से तश्बीह देता हूँ
जो सिर्फ़ अपनी वहशत में ज़िंदा रहते हैं
फ़हीम जोज़ी
नज़्म
जिस की ढलवानों के दलदल लोथड़े हैं ख़ून के
जिस पे उग आईं हैं ख़ुद-रौ झाड़ियाँ कुछ साँस की
रज़ी हैदर गिलानी
नज़्म
हैं कुछ पले हुए शाएर कुछ इन में ख़ुद-रौ हैं
पुराने घाग हैं कुछ इन में शाएर-ए-नौ हैं
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
तेरी धुली हुई शादाब नीलाहट को पीने के लिए
शफ़ीक़ धरती के दामन में आसूदा सब्ज़ा-ए-ख़ुद-रौ
एहतिशाम अख्तर
नज़्म
इक अजब ख़्वाब-ए-गिराँ में सो रहे थे अहल-ए-हिन्द
अपने ही आ'माल को ख़ुद रो रहे थे अहल-ए-हिन्द