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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ˈफ़ॉवड् जाता हूँ मैं गुगली उठाने के लिए
अक़ब में अपने मगर विकटें गिरी पाता हूँ मैं
इनायत अली ख़ाँ
नज़्म
सरमद सहबाई
नज़्म
ये हुजूम-सूरत आसमान-ए-सियाह मेरे अक़ब में है
मैं बड़े बुलंद शजर का फल बड़े फ़ासले का शिकार