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नज़्म
गर ये सच है तो तिरे अद्ल से इंकार करूँ?
उन की मानूँ कि तिरी ज़ात का इक़रार करूँ?
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मीराजी
नज़्म
तेरे ही नग़्मों से धूमें महफ़िल-ए-नाहीद में
मुझ को तेरे सेहर-ए-मौसीक़ी से कब इंकार है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मैं ने कब तेरी मोहब्बत से किया है इंकार
मुझ को इक लम्हा कभी चैन भी आया तुझ बिन