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नज़्म
थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या
अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
नहीं मैं महरम-ए-राज़-ए-दरून-ए-मय-कदा लेकिन
यही महसूस होता है कि हर शय कुछ दिगर-गूँ है
उबैदुर्रहमान आज़मी
नज़्म
आ इसी ख़ाक को हम जल्वा-गह-ए-राज़ करें!
रूहें मिल सकती नहीं हैं तो ये लब ही मिल जाएँ,