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नज़्म
उसी की सर-बुलंदी से वतन की सर-बुलंदी है
मैं एहसास-ए-वक़ार-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत पेश करता हूँ
तकमील रिज़वी लखनवी
नज़्म
मुझ को एहसास-ए-फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू होता रहा
मैं मगर फिर भी फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू खाता रहा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
रहते हैं यहाँ शाही दफ़ातिर के मुलाज़िम
जिन को न कुछ एहसास-ए-ग़रीबुल-वतनी है