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नज़्म
करेगी कमरे का रुख़ जब कनीज़-ए-ख़ास हमराह हो
सियाह हो चाहे गोरी हो मगर वो साथ में जाए
इब्न-ए-मुफ़्ती
नज़्म
लेकिन किसी में पहचान की झलक तक नहीं है
हर एक बंद मुट्ठी में पुर्ज़ा-हा-ए-सियाह थामे