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नज़्म
हर एक बूँद में आफ़ाक़ गुनगुनाते हैं
ये शर्क़ ओ ग़र्ब शुमाल ओ जुनूब पस्त ओ बुलंद
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
कि जिस की लौ, अगरचे वो न शर्क़ी थी न ग़र्बी थी
मगर दो नैन के बिल्लोर में कुछ यूँ भड़कती थी
बिलाल अहमद
नज़्म
है शर्क़-ओ-ग़र्ब में क़ाइल हर एक शख़्स तिरा
वज़ीफ़ा-ख़्वाँ-ओ-सना-गर तिरे शुमाल-ओ-दकन
अर्श मलसियानी
नज़्म
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं