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नज़्म
कहीं गर दो मुकम्मल लफ़्ज़ इकट्ठे हो गए हों तो ये क़ुर्बत ग़ैर-फ़ितरी है
ज़रूरी है मुनासिब फ़ासला देना
साइमा इसमा
नज़्म
यूँ तो हर शाइ'र की फ़ितरत में है कुछ दीवानगी
ग़ैर ज़िम्मेदारियाँ हैं उस की जुज़्व-ए-ज़िंदगी
रज़ा नक़वी वाही
नज़्म
तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़
न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
सत्यपाल आनंद
नज़्म
फैली है फ़ज़ाओं में ख़ुशी मेरी नज़र की
हँसती नज़र आती हैं फ़ज़ाएँ मिरे घर की
अली मंज़ूर हैदराबादी
नज़्म
तू परेशाँ न हो गर मुझ से मुख़ातिब है कोई
मैं तुझे प्यार का मक़्सूम बता सकता हूँ