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नज़्म
इस भीड़ में गुंजाइश-ए-अल्फ़ाज़ कहाँ थी
अल्फ़ाज़ भी होंटों से निकलते थे ब-दिक़्क़त
रज़ा नक़वी वाही
नज़्म
अपनी आसाइशों ने'मतों के लिए सज्दा-ए-शुक्र में अपने सर को झुकाते रहें
क्या यही ज़िंदगी है