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नज़्म
मोहब्बत जब चमक उठती थी उस की चश्म-ए-ख़ंदाँ में
ख़मिस्तान-ए-फ़लक से नूर की सहबा छलकती थी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
इब्न-ए-आदम या'नी ये पर्वर्दा-ए-जौर-ए-फ़लक
शायद अब इस पर मशिय्यत मेहरबाँ होने को है