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नज़्म
देख ले चश्म-ए-बसीरत से ज़माने का निज़ाम
मुझ से ऐ दोस्त मिरे ग़म की सदाक़त मत पूछ
इफ़्फ़त ज़ेबा काकोरवी
नज़्म
काश दे सकता तुझे हुस्न-ए-बसीरत तेरा फ़न
हर मुरक़्क़ा' तेरा बन जाता ख़ुद अपनी अंजुमन
अलीम जहाँगीर
नज़्म
एक इक लफ़्ज़-ए-बे-रंग की पैकरियत छुवाने पे मामूर है
अक्स जितने भी नंग-ए-बसीरत हैं सब