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नज़्म
तुम्हारी शाइरी बार-ए-गराँ अब है समाअ'त पर
कि ज़रख़ेज़ी गुलों से इस में क़ाएम है
रफ़ीउल्लाह मियाँ
नज़्म
जिस कल की ख़ातिर जीते-जी मरते रहे वो कल आ न सका
लेकिन ये लड़ाई ख़त्म नहीं ये जंग न होगी बंद कभी
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
इंसानियत हम से छिन गई, हम दरिंदों के मिस्ल हुए
ख़ुशियों की तलाश में, हम जीते-जी लाश हुए
परवेज़ शहरयार
नज़्म
देख अरबों इंसान जीते-जी मर रहे हैं
ना-इंसाफ़ी बद-अमनी मायूसी बीमारी और जहालत ने