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नज़्म
घड़ी की टिक-टिक बोल रही है रात के शायद एक बजे हैं
बटला हाउस की एक गली में मोटे कुत्ते भौंक रहे हैं
आसिम बद्र
नज़्म
आओ कि तरसती बाँहों में इक बार तो तुम को भर लूँ मैं
कल तुम जो बड़ी हो जाओगी जब तुम को शुऊर आ जाएगा
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
इक आज़माइश-ए-जाँ थी कि था शुऊर-ए-जमाल
और उस की नश्तरिय्यत उस की उस्तुखाँ-सोज़ी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
ऐ मिरे शेर के नक़्क़ाद तुझे है ये गिला
कि नहीं है मिरे एहसास में सरमस्ती ओ कैफ़