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नज़्म
ख़ल्वत-ए-ग़म के दरीचों पे ये दस्तक कैसी
ऐ मिरी फ़ख़्र-ए-वफ़ा रश्क-ए-चमन जान-ए-हया
इम्तियाज़ अहमद क़मर
नज़्म
गर इश्क़ किया है तब क्या है क्यूँ शाद नहीं आबाद नहीं
जो जान लिए बिन टल न सके ये ऐसी भी उफ़्ताद नहीं
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जाने ये किस ने चोट लगाई जाने ये किस को प्यार करे
तुम्ही कहो हम किस को ढूँडें आहें खींचे नाम न ले
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
सब जान के सपने देखते हैं सब जान के धोके खाते हैं
ये दीवाने सादा ही सही पर इतने भी सादा नहीं यारो
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
कैसे कैसे अक़्ल को दे कर दिलासे जान-ए-जाँ
रूह को तस्कीन दी है दिल को समझाया भी है