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नज़्म
निगाह-ए-शौक़ के साँचों में रोज़ ढलता हुआ
सुना है रावियों से दीदनी थी उस की उठान
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
उसी सूरत से दिन ढलता है सूरज डूब जाता है
उसी सूरत से शबनम में हर इक ज़र्रा नहाता है
शौकत परदेसी
नज़्म
इक कड़ा दर्द कि जो गीत में ढलता ही नहीं
दिल के तारीक शिगाफ़ों से निकलता ही नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जब माह अघन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की
और हँस हँस पूस सँभलता हो तब देख बहारें जाड़े की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
चढ़ती रात है ढलता सूरज खड़ी खड़ी मत पाँव मल
फिर ये जादू सो जाएगा समय जो बीता गहरी नींद