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नज़्म
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
आज तो हम बिकने को आए, आज हमारे दाम लगा
यूसुफ़ तो बाज़ार-ए-वफ़ा में, एक टिके को बिकता है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
सरज़मीन-ए-हिन्द को जन्नत बनाने के लिए
कैसे कैसे दस्त-ओ-बाज़ू के शजर जाते रहे
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
दोस्त कहते हैं तिरे दश्त-ए-वफ़ा में कैसे
इतनी ख़ुशबू है महकता हो गुलिस्ताँ जैसे