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नज़्म
ये क्या मुमकिन नहीं तू आ के ख़ुद अब इस का दरमाँ कर
फ़ज़ा-ए-दहर में कुछ बरहमी महसूस होती है
कँवल एम ए
नज़्म
मुझे रंगून से जब दावत-ए-शेर-ओ-सुख़न आई
तबीअत फ़ासले और वक़्त के चक्कर से घबराई
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
हज़ारों मसअलों पर दावत-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र देगी
कि जब थोड़ी सी मोहलत गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर देगी
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
और फिर उस तिफ़्ल की सूरत पे गहरी सोच थी
जो मुझे इक दा’वत-ए-फ़िक्र-ओ-अमल सी दे गई
बर्क़ आशियान्वी
नज़्म
तेरा ज़ाहिर ख़ुशनुमा है तेरा बातिन है सियाह
हर अदा तेरी मुकम्मल दावत-ए-जुर्म-ओ-गुनाह