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नज़्म
कोई अंदाज़ा कर सकता है उस के ज़ोर-ए-बाज़ू का
निगाह-ए-मर्द-ए-मोमिन से बदल जाती हैं तक़दीरें
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
ऐ कि ख़्वाबीदा तिरी ख़ाक में शाहाना वक़ार
ऐ कि हर ख़ार तिरा रू-कश-ए-सद-रू-ए-निगार
जोश मलीहाबादी
नज़्म
सितारा-ए-सुब्ह की रसीली झपकती आँखों में हैं फ़साने
निगार-ए-महताब की नशीली निगाह जादू जगा रही है
जोश मलीहाबादी
नज़्म
तो ज़र-निगार पल्लुवों से झाँकती कलाइयों की तेज़ नब्ज़ रुक गई
वो बोलर एक मह-वशों के जमघटों में घिर गया
मजीद अमजद
नज़्म
रुख़-ए-हयात पे काकुल की बरहमी ही नहीं
निगार-ए-दहर में अंदाज़-ए-मरयामी ही नहीं