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नज़्म
पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयाँ सिमटीं
नए दिन का नया सूरज उफ़ुक़ पर उठता आता है
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
जिस ख़ाल-ओ-ख़द की नज़ाकत की परछाइयाँ थीं
तुझे क्या ख़बर ये किन आँखों की बीनाइयाँ थीं
इशरत आफ़रीं
नज़्म
अब बुतों की बज़्म में तू भी हुआ है बारयाब
ख़ाक को परछाइयाँ जिन की बनाती हैं गुलाब