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नज़्म
सिधारत भी था शर्मिंदा कि दो-आबे का बासी था
तुम्हें मालूम है उर्दू जो है पाली से निकली है
जौन एलिया
नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हम में नहीं कोई तब्दीली जाड़े की पाली रातों में
बैसाख के तपते मौसम में, सावन की भरी बरसातों में
जमील मज़हरी
नज़्म
किसी सब से बड़े बुत-साज़ का शहकार हूँ गोया
मैं शहरों के तबस्सुम-पाश नज़्ज़ारों का पाला हूँ