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नज़्म
मगर मैं तो दूर एक पेड़ों के झुरमुट पे अपनी निगाहें जमाए हुए हूँ
न अब कोई सहरा न पर्बत न कोई गुलिस्ताँ
मीराजी
नज़्म
'अहिल्याबाई' 'दमन' 'पदमिनी' ओ 'रज़िया' ने
यहीं के पेड़ों की शाख़ों में डाले थे झूले
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
बे-पर्दा स्थानों पर दो उड़ते हुए गीतों की तरह
ग़ुस्से में कभी लड़ते हुए कभी लिपटे हुए पेड़ों की तरह
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
सब हँसी रोक के कहती हैं निकालो इस को
इक परिंदा किसी इक पेड़ की टहनी पे चहकता है कहीं
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
इक झलक दे के जो गुम होता है वो पेड़ों में
मैं वहाँ पहुँचूँ तो टीले पे कभी चश्मे के उस पार नज़र आता है
गुलज़ार
नज़्म
कमरे में ख़ामोशी है और बाहर रात बहुत काली है
ऊँचे ऊँचे पेड़ों पर सियाही ने छावनी डाली है