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नज़्म
मर्हबा ऐ पैकर-ए-पैक-ए-सुबुक-गाम-ए-बहार
ले के फिर तू गर्मियों में आई पैग़ाम-ए-बहार
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
लब-ए-लालीं पे लाखा है न रुख़्सारों पे ग़ाज़ा है
जबीं-ए-नूर-अफ़्शाँ पर न झूमर है न टीका है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
वो लोग पैकर-ए-ग़म-ओ-हिर्मां कहें जिन्हें
बेताबियों के रूप में इंसाँ कहें जिन्हें