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नज़्म
गो सुकूँ मुमकिन नहीं आलम में अख़्तर के लिए
फ़ातिहा-ख़्वानी को ये ठहरा है दम भर के लिए
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
और मुफ़लिसों की है ये तमन्ना की फ़ातिहा
दरिया पे जा के देते हैं बाबा की फ़ातिहा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
फ़ातिहा पढ़ने को आया तो बहुत रो रो कर
बख़्श दे उस को ख़ुदा उस ने कहा मेरे बाद
सुग़रा हुमयूँ मिर्ज़ा
नज़्म
किसी की तुर्बत पे फ़ातिहा के लिए न ये अपने हाथ उठाएँ
दिनों को यूँही फ़सुर्दा राहों की ख़ाक उड़ाईं
मुख़्तार सिद्दीक़ी
नज़्म
शाम की फ़ातिहा में भी गिनती सरों की अगर कम रही
तो इस के सबब का मुझे ख़ूब अंदाज़ा है
शारिक़ कैफ़ी
नज़्म
अदल है फ़ातिर-ए-हस्ती का अज़ल से दस्तूर
मुस्लिम आईं हुआ काफ़िर तो मिले हूर ओ क़ुसूर