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नज़्म
तेरे हर ग़म्ज़े की तह में है बनावट का शिकवा
जिस के आगे सर-ब-सज्दा मासियत के दश्त-ओ-कोह
माहिर-उल क़ादरी
नज़्म
बाहर किसी करम की बनावट में होंट एक ओंखा ठहरा ठहरा टेढ़ा ज़ाविया सा हैं
कोई मुझे अब पहचानेगा
मजीद अमजद
नज़्म
और कभी तमाम के तमाम अल्फ़ाज़ खो जाते हैं
बनावट और दिखावे उन को निगल जाते हैं