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नज़्म
मिट के बर्बाद-ए-जहाँ हो के सभी कुछ खो के
बात क्या है कि ज़ियाँ का कोई एहसास नहीं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
वरक़ तारीख़ ने तेज़ी से उल्टे
तग़य्युर ले के साज़-ओ-बर्ग-ए-ता'मीर-ए-जहाँ आया
ज़किया सुल्ताना नय्यर
नज़्म
ब-सू-ए-नौहा-आबाद-ए-जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
निकल कर आ रही है इक गुलिस्तान-ए-तरन्नुम से
नून मीम राशिद
नज़्म
कच्ची दीवार से गिरती हुई मिट्टी की तरह
काँप काँप उठता है बर्बाद-ए-मोहब्बत का वजूद