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नज़्म
ख़त उन का अंजान शहर से आना था न आया है
पढ़ कर नॉवेल अफ़्सानों को दिल अपना बहलाया है
रिज़वान सईद
नज़्म
मुझे इस शाम है अपने लबों पर इक सुख़न लाना
'अली' दरवेश था तुम उस को अपना जद्द न बतलाना
जौन एलिया
नज़्म
गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मरे दोस्त
रोज़ ओ शब शाम ओ सहर मैं तुझे बहलाता रहूँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सुर्ख़ ओ कबूद बदलियाँ छोड़ गया सहाब-ए-शब!
कोह-ए-इज़म को दे गया रंग-ब-रंग तैलिसाँ!