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नज़्म
निकाला मुम्तहिन ने नक़्ल करने से तो बोले हम
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कमरे से हम निकले
हिफ़ज़ान अहमद हाशमी
नज़्म
बनाएँ क्या समझ कर शाख़-ए-गुल पर आशियाँ अपना
चमन में आह क्या रहना जो हो बे-आबरू रहना
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
झगड़ कर जब कहा बेगम ने हम से घर से जाने को
बहुत बे-आबरू हो कर ख़ुद अपने घर से हम निकले
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
ये भी लाज़िम है कि मत कीजे ज़ियादा गुफ़्तुगू
ताकि अहल-ए-'इल्म-ओ-दानिश में न हों बे-आबरू
जब्बार वासिफ़
नज़्म
है इल्म ही से आबरू है इल्म ही से दिल क़वी
यही है दिल की रौशनी यही है दिल का चैन भी
मोहम्मद शफ़ीउद्दीन नय्यर
नज़्म
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
तुम्हारे रोज़-ओ-शब से अब कोई निस्बत नहीं लेकिन
तुम्हारा 'अक्स हर लम्हे के आईने में मिलता है
बशर नवाज़
नज़्म
गुलशन-ए-आलम में जब तशरीफ़ लाती है बहार
रंग-ओ-बू के हुस्न क्या क्या कुछ दिखाती है बहार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मनाज़िर सब उसी इक रौशनी पर मुनहसिर हैं
जो दिल की मुंहमिक परतों को जब भी फाँद कर आती है