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नज़्म
तो ज़र-निगार पल्लुवों से झाँकती कलाइयों की तेज़ नब्ज़ रुक गई
वो बोलर एक मह-वशों के जमघटों में घिर गया
मजीद अमजद
नज़्म
शाइ'र भी जो मीठी बानी बोल के मन को हरते हैं
बंजारे जो ऊँचे दामों जी के सौदे करते हैं
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मगर जो बोली तो उस के लहजे में वो थकन थी
कि जैसे सदियों से दश्त-ए-ज़ुल्मत में चल रही हो