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नज़्म
हर बस्ती हर जंगल सहरा और रूप मनोहर पर्बत का
इक लम्हा मन को लुभाएगा इक लम्हा नज़र में आएगा
मीराजी
नज़्म
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
हरे शीतल मनोहर कितने जंगल आज वीराँ है
वो कैसी लहलहाती खेतियाँ थीं अब जो पिन्हाँ हैं
सलाम मछली शहरी
नज़्म
''लाओ तो क़त्ल-नामा मिरा मैं भी देख लूँ
किस किस की मोहर है सर-ए-महज़र लगी हुई''
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
शहपर-ए-बुलबुल पे खींची जाए तस्वीर-ए-शिग़ाल!
मोतियों पर सब्त हो तूफ़ान की मोहर-ए-जलाल
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हर इक कशीद है सदियों के दर्द ओ हसरत की
हर इक में मोहर-ब-लब ग़ैज़ ओ ग़म की गर्मी है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
घर के बाहर लॉन भी होगा गेंदा और गुल-मोहर के फूल
खरी खाट नहीं रखेंगे बेड बड़े महँगे होंगे