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नज़्म
तुम्हारी सुब्ह जाने किन ख़यालों से नहाती हो
तुम्हारी शाम जाने किन मलालों से निभाती हो
जौन एलिया
नज़्म
देखा तो एक दर में है बैठी वो ख़स्ता-हाल
सकता सा हो गया है ये है शिद्दत-ए-मलाल
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
ज़बाँ-बुरीदा हूँ ज़ख़्म-ए-गुलू से हर्फ़ करो
शिकस्ता-पा हूँ मलाल-ए-सफ़र की बात सुनो
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मलाल ऐसा भी क्या जो ज़ेहन को हर ख़्वाब से महरूम कर दे
जमाल-ए-बाग़-ए-आइंदा के हर इम्कान को मादूम कर दे