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नज़्म
बज़्म-ए-गर्दूँ पर हुआ है अंजुमन-आरा कोई
झाँकता पर्दे से है शायद ये मह-पारा कोई
बिस्मिल इलाहाबादी
नज़्म
आग़ोश-ए-वालिदा में पाला था हम को जिस ने
इक पैकर-ए-अदब में ढाला था हम को जिस ने
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
नज़्म
वो क्या जानें क्यों माह-पारों से पूछो
मोहब्बत है क्या ग़म के मारों से पूछो
सय्यद हुसैन अली जाफ़री
नज़्म
कितने मह-पारे हुए ख़ुद मिरी ज़ुल्मत का शिकार
कौन कर सकता है अब मेरे गुनाहों का शुमार