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नज़्म
राह दुश्वार में इक क़ाफ़िला-ए-निकहत-ओ-नूर
संग-ए-ख़ारा की चटानों के मुक़ाबिल है खड़ा
अंजुम आज़मी
नज़्म
मस्जिदें भी हैं मनादिर भी हैं गिरिजा-घर भी
निकहत-ओ-नूर में डूबा हुआ हर मंज़र भी
अमीर अहमद ख़ुसरव
नज़्म
मैं ने चाहा था कि तारों की बुझा दूँ शमएँ
निकहत-ओ-नूर के साँचे में जो देखा था उसे
अब्दुल मजीद भट्टी
नज़्म
सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम