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नज़्म
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गिरा दे क़स्र-ए-तमद्दुन कि इक फ़रेब है ये
उठा दे रस्म-ए-मोहब्बत अज़ाब पैदा कर
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की क़स्में
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में
राम प्रसाद बिस्मिल
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जो दरवाज़े पे रुक कर देर तक रस्में निभाती थीं
पलंगों पर नफ़ासत से दरी चादर बिछाती थीं
असना बद्र
नज़्म
अब रस्म-ए-सितम हिकमत-ए-ख़ासान-ए-ज़मीं है
ताईद-ए-सितम मस्लहत-ए-मुफ़्ती-ए-दीं है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ये रस्म-ए-इन्क़िताअ' अहद-ए-उल्फ़त ये हयात-ए-नौ
मोहब्बत रो रही है और तमद्दुन मुस्कुराता है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
बहीमियत और वहशत-ओ-जब्र का परस्तार भी वही है
ज़मीन पे क़ाबील के क़बीले की रस्म-ए-बे-दाद औज पर है
ज़िया जालंधरी
नज़्म
रस्म-ए-कोहना को तह-ए-ख़ाक मिलाने दे मुझे
तफ़रक़े मज़हब ओ मिल्लत के मिटाने दे मुझे